मज़हबों में न बदगुमाँ होते
सिर्फ़ इंसान हम यहाँ होते
साथ जो मेरे आप याँ होते,
हम भी फिर आज गुलफिशाँ होते
फ़िरकों में फिर वतन न बंट जाता
अश्क़ माँ के न रायगाँ होते
यूं उजड़ते न ये गली कूचे
आमने सामने मकाँ होते
तुम हमारे हुए चलो ना सही
फ़ासले कम तो दरमियाँ होते
रहता आबाद आशियाँ अपना
अपने फ़रज़न्द हमज़बाँ होते
खूब खेले हो तुम बहारों में
थोड़े मानूस गर ख़िज़ाँ होते -
प्रताप श्रीवास्तव – १८ जनवरी २०१७
गुलफिशाँ – फूल बांटने वाला
रायगाँ – व्यर्थ
फ़रज़न्द – बेटे
ख़िज़ाँ – पतझड़
My stray musings— This blog is written with my family and immediate circle of friends as intended readership, so everyone may not connect with some of the events or places described; not that I have any objections to others reading it. In fact, they are most welcome–